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Sunday, 1 September 2013

खाद्य सुरक्षा या भिक्षा ?

सरकार ने आखिर लोकसभा में खाद्य सुरक्षा बिल पास करवा ही लिया। विपक्षी दलों ने अनमने ढंग से ही सही इस पर हामी भर दी। शायद चुनावी मौसम में कोई भी आम आदमी के हितों का विरोधी नजर  नहीं आना चाहता।  पर प्रश्न यह है कि इस योजना  से क्या आम आदमी का वाकई कोई हित सधेगा ? या यह सिर्फ एक चुनावी पैंतरा है ?

इस बिल के माध्यम से सरकार  देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी को 1 से 3 रुपये प्रति किलो के हिसाब से गेहूँ,चावल और दूसरा मोटा अनाज मुहैया कराना चाहती है (यह बात और है कि रोटी और चावल के साथ खाया जाने वाली सब्जियों और दालों के दाम आसमान छू रहे है, और मसाले, घी,तेल,ईंधन आदि के खर्चे अपनी जगह पर हैं। )

सरकार के अनुसार यह सब्सिडी देने में उसे प्रति वर्ष 1 लाख  25 हजार करोड़ खर्च करने पड़ेंगे। हालाँकि दूसरी संस्थाओं जैसे कृषि मंत्रालय के 'कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कास्ट्स एंड प्राईसेज (CACP) ने एक रिसर्च पेपर में कहा है की इस योजना में सरकार को तीन वर्ष में लगभग  6,82,163  करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे। पहले ही वर्ष में 2,41,263 करोड़ खर्च करने पड़ेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार के अनुमानित खर्चे में इस योजना को लागू करने के लिए आवश्यक अतिरिक्त प्रशासकीय ढांचे,भण्डारण,यातायात आदि में आने वाले खर्चे को शामिल नहीं किया गया है। इस योजना पर  सरकारीअनुमानित खर्च 2013-14 में होने वाली सरकारी  अनुमानित आय ( 11,22,799करोड़ रुपये ) का 11.10 % है जबकि CACP के अनुमान से यह 21.5% है।

ख़राब अर्थव्यवस्था के इस दौर में इस अतिरिक्त खर्चे की पूर्ति के लिए सरकार जनता पर नए कर लगाने के बारे में शायद ही सोचे।वैसे भी जिस देश में मात्र 42,800 लोगों ने यह स्वीकारा है कि उनकी कर योग्य आमदनी 1 करोड़ प्रति वर्ष से अधिक है, वहां नया कर लगना एक बात है और उसे लोगों से वसूल करना दूसरी बात। तब सरकार के पास दो-तीन रास्ते बचते हैं : पहला कि वह विदेशों से कर्ज ले। लेकिन यह  एक महंगा सौदा होगा क्योंकि कर्ज चुकाने के लिए उसे फिर डॉलर की जरूरत पड़ेगी जिससे फिर रुपये पर दबाव पड़ेगा और उसकी कीमत घटेगी।  सरकार  अपने नागरिकों और कंपनियों से भी विभिन्न विकास-पत्रों,  बांड्स आदि के माध्यम से पैसा जुटा सकती है परन्तु इसकी वजह से निजी क्षेत्र और सरकार के बीच कर्ज लेने के लिए कम्पीटीशन बढेगा और ब्याज दरें बढ़ जाएँगी जो अंततः अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं होगा।  

यह बात  भी गौरतलब  कि खाद्य सुरक्षा योजना किसी निश्चित अवधि के लिए लागू नहीं की गई है। जैसा कि तक्षशिला इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर,नितिन पाई कहते हैं,"यह एक अनिश्चित काल के लिए चलने वाली योजना है जो 2/3 आबादी को लाभान्वित करने के लिए है, इसलिए जनसँख्या बढ़ने पर इसका दायरा और खर्च भी बढेगा। "

अधिक संख्या में नोट छापना भी एक तरीका हो सकता है जिसका सहारा सरकार  ले सकती है, परन्तु ऐसी स्थिति में कीमतें बढेंगी। कीमतें एक दूसरे कारण  से भी बढ़ेंगी। चूँकि इस योजना के लिए सरकार किसानों से ही अनाज लेगी, किसान लाभ के लिए सब्जी की बजाय इन अनाजों पर ही अधिक ध्यान देंगे। इससे सब्जी के दाम चढ़ेंगे और गरीबों की मुसीबत में इज़ाफा करेंगे। यह तो एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से लेने वाली बात है। 

इसके अलावा CACP और दूसरी संस्थाओं द्वारा किये गए अध्ययनों से पता चलता है जनता के लिए भेजे गए अनाज का लगभग 50 से  55 प्रतिशत उन तक कभी नहीं पहुँचता।  इन बातों के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा की राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना एक अव्यावहारिक कदम है। 

इस सन्दर्भ में यह कहना गलत नही होगा कि जहाँ एक ओर सरकार को गरीबों के भोजन की चिंता सता रही है वहीँ दूसरी ओर उसकी नीतियों ने उनके रोजगार को ख़त्म कर उनके मुंह से निवाला छिनने का काम किया है। इस सरकार के कार्यकाल में 587 अरब डॉलर की उन चीजों का आयात हुआ जिनका उत्पादन देश में ही किया जा सकता था।  इस तरह आयात-निर्यात के असंतुलन से देश का लगभग 339 अरब डॉलर बाहर चला गया। 
अकेले चीन को पिछले 6 सालों में हमारा 175 अरब डॉलर से अधिक पैसा जा चुका  है।  एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ़  कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (Assocham) के एक अध्ययन से पता चलता है कि आयातित खिलौनों की वजह से 40% भारतीय खिलौना निर्माता पिछले 5 सालों में अपना काम बंद कर चुके हैं और दूसरे 20% बंद होने के कगार पर हैं। कमोबेश यही हाल दूसरे धंधों का भी है। योजना आयोग के अनुसार 2005 से 2010 तक देश में लगभग 50 लाख नौकरियां ख़त्म हो चुकी हैं।   

यदि सरकार वाकई लोगों के भोजन की चिंता करती है तो उसे इस बात का जवाब देना होगा कि क्यों वह चीन और दूसरे  देशों से आयातित सामान से भारतीय बाजारों को भर कर अपने लाखों छोटे-छोटे  उद्योग धंधों को  ख़त्म कर रही है? करोड़ों भारतवासियों को बरोजगार कर किसका हित साध रही है? 

प्रउटिष्ट ब्लॉक,इंडिया का मानना है कि  यदि सरकार  वाकई लोगों की खाद्य सुरक्षा के प्रति गंभीर है तो उसे लोगों को खाद्य सुरक्षा के नाम पर भीख देने के बजाय कृषि एवं उद्योगों  को बढ़ावा देकर उनमे लोगों के उचित रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि वे स्वाबलंबी हो कर  रोटी,कपड़ा,मकान,चिकित्सा और शिक्षा खरीदने के लिए पर्याप्त धन कमा सकें।     


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