हाल ही में एक अंतराष्ट्रीय पत्रिका फ़ोर्ब्स ने 100 सबसे अमीर भारतीयों की एक लिस्ट जारी की है। इन चंद भारतीयों की कुल संपत्ति 250 बिलियन डॉलर है, वहीं दूसरी ओर 80 करोड़ भारतीयों के हालत एसे हैं कि वे दिन के 20 रुपए भी ख़र्च नही कर सकते। आंकड़े बताते है कि मात्र 10 प्रतिशत भारतीय देश की 50 प्रतिशत से अधिक संपत्ति के मालिक हैं। जहाँ एक ओर एक फिल्मी अभिनेत्री अपनी शादी पर 3 करोड़ की अंगूठी पहनती है, तो दूसरी ओर लाखों लड़कियाँ पैदा होने से पहले ही मार दी जातीं हैं क्योंकि उनके माँ-बाप उनकी शिक्षा ऑर शादी का खर्च नही उठा सकते। जहाँ एक ओर एक कलाकार 8 सेकेंड के विज्ञापन के लिए 8 करोड़ रुपये का मेहनताना पाता है, तो दूसरी ओर करोड़ों मजदूरों को अपनी फसल के उचित दाम पाने के लिए सड़क पर उतरना पड़ता है।
ऐसी और ऐसी ही कई और ख़बरों को पढ़-सुन कर मन में कुछ प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है । पहला की कैसे कुछगिने-चुने लोग ही धन के ऊँचे -ऊँचे पहाड़ों पर विराजमान हैं जबकि करोड़ोंलोग गरीबी की दिनोंदिन गहराती खाईमें धंसते जा रहे हैं ? दूसरा प्रश्न कि एक व्यक्ति के पास कितनी धन-संपत्ति होना जायज है ?
पहले प्रश्न का उत्तर खोजने पर हम पाते हैं कि धन का कुछ ही लोगों कि तिजोरियों में जमा हो जाने का सबसे बड़ा कारण है कि कुछ ही बड़े बिजनेसमैन और बिजनेस घरानों का उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर पूरा कब्ज़ा है। वे जिन वस्तुओं का जितना चाहे उत्पादन करके जहाँ चाहे जितने चाहे मुनाफे पर बेचते हैं। खुले बाज़ार की इस अर्थव्यवस्था में धीरे -धीरे बड़े व्यवसायी छोटे व्यवसायिओं को निगल जाते हैं । परिणामस्वरूप बाज़ार में कम्पीटीशन समाप्त हो जाता है और मुनाफाखोरी से प्राप्त धन जनता की जेब से निकल कर इन बड़े -बड़े उद्योपतियों और व्यवसायिओं के हाथ में केंद्रित हो जाता है । लोगों के पास धन की कमी से उनकी खरीदने की क्षमता कम हो जाती है,जिसकी वजह से उत्पादित वस्तुओं कि मांग घट जाती है,परिणामस्वरूप घटा कम करने के लिए ये धन कुबेर अपनी फैक्टरियों में उत्पादन कम कर देते हैं और मजदूरों तथा दूसरे कर्मचरियों कि छंटनी कर देते हैं । नतीजनन बेरोजगारी बढती है और जनता कि खरीदने कि क्षमता और घट जाती है ।अंततः एक ऐसी स्थिति जन्म लेती है जहाँ वस्तुएं और सेवाएं तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं परन्तु उनका कोई खरीदार नहीं है। यही अवस्था कहलाती है मंदी -- आर्थिक मंदी।
इस सब में सरकार की भूमिका क्या रहती है ? प्रजातान्त्रिक देश में चुनाव के जरिये सत्ता हासिल की जाती है। चुनाव लड़ने के लिए राजनैतिक दलों को धन की आवश्यकता होती है , जो इन्हें चंदे के नाम पर प्राप्त होता है इन धनपतियों से। बदले में चुनाव जीतने के बाद सभी योजनायें एवं नीतियाँ इन्हीं धनपतियों के हित को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं। इसके अलावा किस तरह मंत्री, मुख्यमंत्रिओं एवं सरकारी अफसरों को रिश्वत देकर औने-पौने दाम पर ज़मीन,कच्चा माल आदि हासिल किया जाता है यह जगजाहिर है। इस तरह धनलोलुप पूंजीपतियों और सेवाविमुख राजनीतिज्ञों के अपवित्र गठबन्धन से आर्थिक विषमता जन्म लेती है जिसमे अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होते जाते हैं।
अब हम आते हैं अपने दूसरे प्रश्न पर : एक व्यक्ति के पास कितनी धन -संपत्ति होना जायज है? किसी भी मनुष्य को धन की आवश्यकता दो कारणों से होती है - पहला उसकी तथा उसपर सीधे तौर से आधारित लोगों की वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ; और दूसरा आकस्मिक आवश्यकताओं जैसे दुर्घटना,बीमारी इत्यादि की पूर्ति के लिए ।
इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जरूरी धन -संपत्ति प्राप्त हो जाने के बाद भी यदि कोई व्यक्ति धन संग्रह जारी रखता है तो समझना होगा की वह व्यक्ति एक तरह की मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो गया है जिसमे उसे धन के संग्रह मात्र से सुख प्राप्त हो रहा है । इस तरह आवश्यकता से अधिक धन की या तो बर्बादी होती है
या दुरूपयोग ।
या दुरूपयोग ।
प्रउत का मानना है की चूँकि मनुष्य अपने साथ न कुछ लेकर आता है और न कुछ लेकर जाता है, इसलिए वह किसी भौतिक संपत्ति जैसे ज़मीन,जल,खनिज पदार्थ आदि का मालिक नहीं है। उसे सिर्फ उनके उपयोग का अधिकार है। इसके अलावा भौतिक संपत्ति सीमित मात्रा में मौजूद है। इसलिए किसी भी मनुष्य को उसे जितना चाहे जमा करने की खुली छूट नहीं दी जा सकती। सीमित धन एवं संसाधनों का विवेकपूर्ण ढंग से वितरण की इस प्रकार व्यवस्था करनी होगी की प्रत्येक व्यक्ति अपनी मूल आवश्यकताओं जैसे भोजन,वस्त्र,आवास,चिकित्सा और शिक्षा की पूर्ति के पर्याप्त धन कमा सके ताकि वह अपने शरीर को पुष्ट और मन को विकसित कर सके। सीमित धन का ज्यादातर हिस्सा कुछ लोगों की जेब में ही भरकर न रह जाये,इसके लिए न्यूनतम और अधिकतम संपत्ति की सीमा निर्धारण करनी आवश्यक है । प्रउत का मानना है की अधिकतम आमदनी न्यूनतम आमदनी से दस गुना से अधिक नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने पर ही आर्थिक विषमता जिसका जिक्र हमने शुरू में किया था वह दूर होगी और धरती पर स्वर्ग उतर आयेगा ।
सहमत हूँ आपसे.....अच्छा लिखा है। शुभकामनायें।
ReplyDeleteaapake vichaaron se sahamat|asha hai aaage bhi is tarah ke lekh padhane ko milenge|
ReplyDeleteये न खत्म होने वाली चीज़ है बस चक्र चलता है किसी न किसी को तो गरीब होना है चाहे वो आप ही क्यों न हो
ReplyDeleteDua aur koshish karen,ki, yah khayi door ho!
ReplyDeleteSnehil swagat hai!
http://shamasansmaran.blogspot.com
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Ek janjagruti ki koshish honi chahiye...hame hee hamare deshwasiyon ke liye milke qadam uthane honge..ke ye daraar aur na badhe!
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट लिखी है।बधाई।
ReplyDeleteisake jimmedar ham aur aap hai. agar koi adhik kamata hai adhik kharch karata hai isaka matalab yah nahi ki isame usaki ya desh ki kami nahi hai. agar ham kuch acheive nahi kar paye to isame galati hamari aur awareness ki hai.
ReplyDeleteHa mai manata hu ki samaj me bahut hi partiality hai, lekin isake jimmedaar bhi ham aap hai.Garibi hamane accept kiya hai to hai usi tarah jina marana hamane accept kiya hai to hai,.otherwise shastri ji bhi ek garib pariwar se the,.....lekin unhone garibi ko apani kamjori nahi majabooti banayee apane kaam ke prati desh v samaj ke prati nishtha rakhi....
But you have explained very well .I accept it but need is that we should try to made it better.
आज खबर आई है कि गोपीनाथ मुंडे की बेटी की शादी में ५ करोड़ खर्च हुए
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी टिप्पणियां दें
कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये
वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:
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इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..कितना सरल है न हटाना
और उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये
thought provoking blog, welcome dear
ReplyDeleteJisane jitana boya utana paya.... yahi theek hai.Badhiya aalekh.
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